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लेखनी कहानी -02-Aug-2023 ब्लैक रोज

भाग 78

शर्मिष्ठा ने जो कुछ सुना वह अविश्वसनीय था । उसे लगा कि उसने कुछ गलत सुन लिया है । उसकी पुष्टि के लिए उसने पुन: पूछा "एक बार फिर से कहें तात् ! मैं अच्छी तरह सुन नहीं पाई" ।  महामात्यासर्प ने मन ही मन सोचा कि काश ! आप इसे कभी नहीं सुनें । प्रकट में वे बोले "बहुत कठोर सजा सुनाई है पुत्री देवयानी ने । अब आपको जीवन भर देवयानी की दासी रहना होगा । इससे तो अच्छा है कि आप ये सजा स्वीकार ही नहीं करें । सजा स्वीकार नहीं करने पर क्या हो जायेगा ? सजा स्वीकार नहीं करने पर इतना ही तो होगा कि शुक्राचार्य यहां से चले जायेंगे, ! जाने दो उन्हें । क्या फर्क पड़ता है ? देवयानी उल्टी रीत चलाना चाहती है । राजकुमारी को दासी और अकिंचन को महारानी बनाना चाहती है । ऐसा दंड मैंने आज तक न कभी देखा और न कभी सुना । मेरा निवेदन मानिए राजकुमारी जी , आप यह दंड स्वीकार मत करना" । महामात्यासर्प ने दोनों हाथ जोड़ दिये ।

अब शर्मिष्ठा को विश्वास हो गया था कि उसने जो सुना था , वह सही ही सुना था । यह दंड था या उसे निर्जीव बनाने का षडयंत्र ! उसके लिए अकल्पनीय, अद्भुत, अमानवीय दंड निर्धारित किया था देवयानी ने । यदि सखि ऐसी होती है तो शत्रु कैसा होता होगा ? पर सखि तो उसने ही बनाया था न ?  उसे अब समझ में आया कि पिता श्री और माते की ऐसी हालत क्यों हुई है ? ऐसी बात सुनकर प्रत्येक माता पिता की गति वही होनी थी जैसी महराज और महारानी की हुई है । सोच सोचकर शर्मिष्ठा का सिर घूमने लगा । उसे चक्कर से आने लगे । उसे दुनिया घूमती हुई सी लगने लगी । उसका शरीर शिथिल होने लगा जैसे किसी ने उसकी जान निकाल ली हो । वह गिरने ही वाली थी कि उसके हाथ दीवार से टकरा गये । वह दीवार का सहारा लेकर वहीं पर बैठ गई । शर्मिष्ठा की हालत देखकर दासियां दौड़ी चली आईं  । उन्होंने शर्मिष्ठा को उठाकर पलंग पर लिटा दिया । वे झटपट पंखा झलने लगीं ।

पंखे की हवा से शर्मिष्ठा को बहुत आराम मिला । उसकी चेतना लौटने लगी । उसने आंखें खोल दीं । देखा कि उसके पलंग के चारों ओर दासियां खड़ी हैं । वह पलंग पर लेटे लेटे सोचने लगी "वह राजकुमारी है या दासी ? आज तो वह एक राजकुमारी की तरह पलंग पर लेटी हुई है और उसके चारों ओर दासियां मंडरा रही हैं । लेकिन देवयानी ने उसे एक दासी बना दिया है । तो क्या वह भी इन दासियों की तरह ही एक दासी बन जायेगी ? देवयानी उसे आदेश देगी ? जो सखि एक अकिंचन की तरह उसके आगे पीछे घूमती थी , वह अब उसकी स्वामिनी बनेगी" ! क्या अद्भुत खेल खेला है नियति ने । इसीलिए तो कहते हैं कि कुदरत के खेल निराले मेरे भैया , कुदरत के खेल निराले । पता नहीं अभी तो और क्या क्या देखना पड़ेगा इस जीवन में" ?

उसकी आंखों से उसकी वेदना पानी बनकर बहने लगी । सिर के नीचे रखा कशिपु (तकिया) भीगने लगा । संभवत: वह गीला होकर शर्मिष्ठा का संताप कम करने का प्रयास कर रहा था । एक अनजाने में हुई गलती की इतनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ेगी उसको , उसने यह स्वप्न में भी नहीं सोचा था । तो क्या उसे यह दंड स्वीकार नहीं करना चाहिए ?

उसके मन से आवाज आई "यदि उसने यह दंड स्वीकार कर लिया तो वह एक जीवित शव बनकर रह जायेगी । दासियों की दुनिया देखी है उसने । उनका जीवन भी कोई जीवन होता है क्या ? उनकी न कोई कामना होती है न कोई उमंग । वह तो अपनी स्वामिनी की हंसी में जीती है और स्वामिनी के दुखों में घुलती है । उसका अपना कुछ भी नहीं है । यहां तक कि उसे स्वप्न भी स्वामिनी के ही आते हैं । वह तो अपने लिए स्वप्न भी नहीं देख सकती है । जिस तरह से ये दासियां उसकी सेवा कर रही हैं वैसे ही उसे भी देवयानी की करनी पड़ेगी । छि : ! देवयानी की सेवा और वह भी उसके द्वारा ? यह असंभव है" । उसके हाथ तन गये । भृकुटियां टेढ़ी हो गईं । नाक क्रोध से लाल हो गई ।

किन्तु अगले ही पल उसे ध्यान में आया कि यदि देवयानी की बात नहीं मानने पर शुक्राचार्य उनके राज्य से चले गये हैं । कहां गये हैं , किसी को बताकर भी नहीं गये । देवयानी को अपने साथ ले गये हैं । उनके जाते ही देवताओं ने आक्रमण कर दिया है । दैत्य अपनी पूरी शक्ति लगाकर युद्ध कर रहे हैं किन्तु उनके पैर उखड़ रहे हैं । अचानक इन्द्र ने अपना वज्र छोड़ दिया जो सीधा महाराज वृषपर्वा के हृदय में जा घुसा । महाराज वृषपर्वा दर्द से कराह रहे हैं । सेना भाग खड़ी हुई और मां प्रियंवदा विधवा बनकर सिसक रही हैं । बहुत भयावह कल्पना है यह । यदि यह कल्पना साकार हो गई तो ? इसके पश्चात तो कुछ भी नहीं बचेगा ।

इतने में एक कोने से खुसुर-पुसुर की आवाजें आने लगी । उसने देखा कि एक कोने में दो दासियां धीरे धीरे बातें कर रही हैं । वह अपने कान उधर लगाकर उनकी बातें सुनने लगीं ।  एक दासी "लोग कह रहे हैं कि महाराज वचन दे आयें हैं"  दूसरी "वचन ! कैसा वचन" ?  पहली "अरे बावली ! वही जो देवयानी ने मांगा था" ।  दूसरी "देवयानी ने क्या मांगा था" ?  पहली "यही कि राजकुमारी को जो दंड वह निर्धारित करेगी , महाराज उसकी पालना करवायेंगे । और महाराजये वचन दे आये थे" ।

शर्मिष्ठा को अब समझ में आया कि पिता श्री और माता दोनों इसीलिए धर्मसंकट में फंसे हुए हैं । एक तरफ तो उनकी पुत्री का अंधकारमय भविष्य है और दूसरी ओर उनका स्वयं का राज्य और देवयानी को दिया हुआ वचन है । बड़ी विचित्र स्थिति थी उनकी । वचन पूरा करते हैं तो अपनी बेटी को नर्क में धकेलते हैं और यदि वचन पूरा नहीं करते हैं तो न केवल राज्य खो देते हैं अपितु वचन भंग करने के दोष में अपयश के भागी भी बनते हैं । इधर गिरे तो कुंआ और उधर गिरे तो खाई । ये कैसी विपदा की घड़ी आई ?

शर्मिष्ठा सोचने लगी कि महाराज और महारानी की इस दयनीय स्थिति की उत्तरदायी केवल वह है । आवेश में आकर यदि वह देवयानी को कुंए में धक्का नहीं देती तो उसे आज यह दिन देखना नहीं पड़ता । वह एक क्षत्रिय कन्या है । क्षत्रिय कभी विपत्तियों से घबराते नहीं हैं । वह भी हिम्मत के साथ सामना करेगी इन परिस्थितियों का । उसने अपना मन कठोर कर लिया था ।

श्री हरि  23.8.23

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